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chane ke rog

चने की खेती कैसे करें एवं चने की खेती के लिए जानकारी

चने की खेती कैसे करें एवं चने की खेती के लिए जानकारी

यह कहावत आज भी ग्रामीण भारत में प्रचलित है। कच्चा चना घोडे को खिलाया जाता है, जो बेहद श्रमसाध्य काम करता है वहीं भुना हुआ चना बीमार मरीज को खिलाया जाता है जिनको कि लीबर में समस्या हो। यानी कि चना हर तरीके से और हर श्रेणी के मनुष्य और पशु दोनों के लिए उपयोगी है। चने की खेती यूंतो हर तरह की भारी मिट्टी में होती है लकिन जिन इलाकों में चने की खेती करना किसानों ने बंद कर दिया है वहां इसकी खेती एक दो किसानों के करने से तोता जैसे पक्षी ज्यादा नुकसान करते हैं। चना बहुत गुणकारी होता है। यह सभी जानते हैं लेकिन इसकी खेती के लिए कई चीजों का ध्यान रखना पड़ता है। नए किसान भाईयों के लिए यह जानना जरूरी है कि चने की खेती कैसे की जाती है। 

चने की खेती

चने की खेती के लिए हल्की दोमट या दोमट मिट्टी अच्छी होती है। भूमि में जल निकास की उपयुक्त व्यवस्था होनी चाहिये। भूमि में अधिक क्षारीयता नहीं होनी चाहिये।  फसल को दीमक एवं कटवर्म के प्रकोप से बचाने के लिए अन्तिम जुताई के समय हैप्टाक्लोर (4 प्रतिशत) या क्यूंनालफॉस (1.5 प्रतिशत) या मिथाइल पैराथियोन (2 प्रतिशत) चूर्ण की 25 कि.ग्रा. मात्रा को प्रति हैक्टेयर की दर से मिट्टी में अच्छी प्रकार मिलाना चाहिये। चने में अनेक प्रकार के कीट एवं बीमारियां हानि पहुँचाते हैं। इनके प्रकोप से फसल को बचाने के लिए बीज को उपचारित करके ही बुवाई करनी चाहिये। बीज को फफूंदनाशी कार्बन्डाजिम आदि, कीटनाशक कोई भी एक एवं राजोबियम कल्चर से उपचारित करें। बीज को उपचारित करके लिए एक लीटर पानी में 250 ग्राम गुड़ को गर्म करके ठंडा होने पर उसमें राइजोबियम कल्चर व फास्फोरस घुलनशील जीवाणु को अच्छी प्रकार मिलाकर उसमें बीज उपचारित करना चाहिये। तदोपरांत छांव में सुखाकर बीज की बिजाई करें। 

चने की बुबाई का समय

असिचिंत क्षेत्रों में चने की बुवाई अक्टूबर के प्रथम पखवाड़े में कर देनी चाहिये। जिन क्षेत्रों में सिंचाई की सुविधा हो वहाँ पर बुवाई 30 अक्टूबर तक अवश्य कर देनी चाहिये। बारानी खेती के लिए 80 कि.ग्रा. तथा सिंचित क्षेत्र के लिए 60 कि.ग्रा. बीज की मात्रा प्रति हैक्टेयर पर्याप्त होती है। बारानी फसल के लिए बीज की गहराई 7 से 10 से.मी. तथा सिंचित क्षेत्र के लिए बीज की बुवाई 5 से 7 से.मी. होनी चाहिये। फसल की बुवाई सीड ड्रिल से करनी चाहिए। 

चने की खेती में खाद एवं उर्वरक कितना डालें

  chane ki kheti 

 किसी भी दलहनी फलस को उर्वरकों की बेहद कम आवश्यकता होती है। नाइट्रोजन फिक्सेसन का काम दलहनी पौधों की जड़ों द्वारा खुद किया जाता है फिर भी उर्वकर प्रबंधन आवश्यक है। पौधों के प्रारंभिक विकास के लिए20 किलोग्राम नाइट्रोजन, 40 कि.ग्रा. फॉस्फोरस प्रति हैक्टेयर की दर से देना चाहिये। एक हैक्टेयर क्षेत्र के लिए 2.5 टन कस्पोस्ट खाद को भूमि की तैयारी के समय अच्छी प्रकार से मिट्टी में मिला देनी चाहिये।

 

अच्छी पैदाबार के लिए चने की उन्नत किस्में

    chane ki kisme 

 विविधताओं वाले देश में अनेक तरह की पर्यावरणीय परिस्थिति हैं। इनके अनुरूप ही वैज्ञानिकों ने चने की उन्नत किस्मों का विकास किया है। एनबीईजी 119 किस्म 95 दिन में पक कर 19 कुंतल उपज देती है। इसे कर्नाटक, एपी, तमिलनाडु में लगाया जा सकता है। फुले विक्रांत किस्म 110 दिन में तैयार होकर 21 कुंतल उपज देती है। महाराष्ट्र, वेस्ट एमपी एवं गुजरात में लगाने योग्य। अरवीजी 202 किस्म 100 दिन में 20 कुंतल एवं अरवीजी 203 किस्म 100 दिन में 19 कुंतल उपज देती है। उक्त क्षेत्रों में बिजाई योग्य। 

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 एचसी 5 किस्म 140 दिन में 20 कुंतल उपज एवं पंजाब, हरियाणा, दिल्ली, राजस्थान, उत्तराखण्ड में बोने योग्य। जीबीएम 2 किस्म 110 दिन में 20 कुंतल उपज एवं कर्नाटक, एनबीईजी 47 किस्म 95 दिन में 25 कुंतल प्रति हैक्टेयर तक उपज देती है। आंध्र प्रदेश में लगाने योग्य। फुले जी 115 दिन में 23 कुंतल, बीजी 3062 किस्म 118 दिन में 23 कुंतल, जेजी 24 किस्म 110 दिन में 23 कुंतल तक उपज देती हैं। उक्त किस्मों को महाराष्ट्र, एमपी, गुजरात, यूपी, दक्षिणी राजस्थान आदि क्षेत्रों में लगाया जा सकता है। 

चने की खेती के लिए सिंचाई  

 chnae ki sinchai 

 सिंचाई की सुविधा उपलब्ध हो तो नमी की कमी होने की स्थिति में एक या दो सिंचाई की जा सकती है। पहली सिंचाई 40 से 50 दिनों बाद तथा दूसरी सिंचाई फलियां आने पर की जानी चाहिये। सिचिंत क्षेत्रों में चने की खेती के लिए 3 से 4 सिंचाई पर्याप्त होती है। पहली सिंचाई फसल की निराई करने के बाद 35-40 दिन बाद,  70-80 दिन बाद दूसरी एवं 105-110 दिनों बाद अन्तिम सिंचाई करनी चाहिये।

चने में खरपतवार नियंत्रण   chana kharatpwar 

 चने में बथुआ, खरतुआ, मोरवा, प्याजी, मोथा, दूब इत्यादि उगते हैं। ये खरपतवार फसल के पौधों के साथ पोषक तत्वों, नमी, स्थान एवं प्रकाश के लिए प्रतिस्पर्धा करके उपज को प्रभावित करते हैं। इसके अतिरिक्त खरपतवारों के द्वारा फसल में अनेक प्रकार की बीमारियों एवं कीटों का भी प्रकोप होता है जो बीज की गुणवत्ता को भी प्रभावित करते हैं। 

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बचाव के लिए चने की फसल में दो बार गुड़ाई करना पर्याप्त होता है। प्रथम गुड़ाई फसल बुवाई के 30-35 दिन पश्चात् व दूसरी 50-55 दिनों बाद करनी चाहिये। यदि मजदूरों की उपलब्धता न हो तो फसल बुवाई के तुरन्त पश्चात् पैन्ड़ीमैथालीन की 2.50 लीटर मात्रा को 500 लीटर पानी में घोल बनाकर खेत में समान रूप से मशीन द्वारा छिड़काव करना चाहिये। फिर बुवाई के 30-35 दिनों बाद एक गुड़ाई कर देनी चाहिये।

 

चने के कीट एवं रोग

यदि खड़ी फसल में दीमक का प्रकोप हो तो क्लोरोपाइरीफोस 20 ईसी या एन्डोसल्फान 35 ईसी की 2 से 3 लीटर मात्रा को प्रति हैक्टेयर की दर से सिंचाई के साथ देनी चाहिये। ध्यान रहे दीमक के नियन्त्रण हेतु कीटनाशी का जड़ों तक पहुँचना बहुत आवश्यक है। कटवर्म की लटें ढेलों के नीचे छिपी होती है तथा रात में पौधों को जड़ों के पास काटकर फसल को नुकसान पहुँचाती हैं। कटवर्म के नियंत्रण हेतु मिथाइल पैराथियोन 2 प्रतिशत या क्यूनालफास 1.50 प्रतिशत चूर्ण की 25 किलोग्राम मात्रा को प्रति हैक्टेयर की दर से भुरकाव शाम के समय करना चाहिये।

 

फली छेदक

  fali chedak 

 यह कीट फली के अंदर घुस कर दानों को खा जाता है। इस कीट के नियंत्रण हेतु फसल में फूल आने से पहले तथा फली लगने के बाद क्यूनालफॉस 1.5 प्रतिशत या मिथाइल पैराथियोन 2 प्रतिशत चूर्ण की 20-25 कि.ग्रा. मात्रा को प्रति हैक्टेयर की दर से भुरकना चाहिये। पानी की उपलब्धता होने पर मोनोक्रोटोफॉस 35 ईसी या क्यूनॉलफोस 25 ईसी की 1.25 लीटर मात्रा को 500 लीटर पानी में घोल बनाकर प्रति हैक्टेयर की दर से फसल में फूल आने के समय छिड़काव करना चाहिये। 

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झुलसा रोग (ब्लाइट)

यह बीमारी एक फफूंद के कारण होती है। इस बीमारी के कारण पौधें की जड़ों को छोड़कर तने पत्तियों एवं फलियों पर छोटे गोल तथा भूरे रंग के धब्बे बन जाते है। पौधे की आरम्भिक अवस्था में जमीन के पास तने पर इसके लक्षण स्पष्ट रूप से दिखाई देते है। पहले प्रभावित पौधे पीले व फिर भूरे रंग के हो जाते है तथा अन्ततः पौधा सूखकर मर जाता है। इस रोग के लक्षण दिखाई देने पर मैन्कोजेब नामक फफूंदनाशी की एक कि.ग्रा. या घुलनशील गन्धक की एक कि.ग्रा. या कॉपर ऑक्सीक्लोराइड की 1.30 कि.ग्रा.मात्रा को 500 लीटर पानी में घोल बनाकर छिड़काव करना चाहिये। 10 दिनों के अन्तर पर 3-4 छिड़काव करने पर्याप्त होते है।


 

उखटा रोग (विल्ट)

  ukhta rog 

 इस बीमारी के लक्षण जल्दी बुवाई की गयी फसल में बुवाई के 20-25 दिनों बाद स्पष्ट रूप से दिखाई देने लगते हैं। देरी से बोई गयी फसल में रोग के लक्षण फरवरी व मार्च में दिखाई देते हैं। पहले प्रभावित पौधे पीले रंग के हो जाते हैं तथा नीचे से ऊपर की ओर पत्तियाँ सूखने लगती हैं अन्ततः पौधा सूखकर मर जाता है। इस रोग के नियन्त्रण हेतु भूमि में नमी की कमी नही होनी चाहिये। यदि सिंचाई की सुविधा उपलब्ध हो तो बीमारी के लक्षण दिखाई देते ही सिंचाई कर देनी चाहिये। रोग रोधी किस्मों जैसै आरएसजी 888ए सी 235 तथा बीजी 256 की बुवाई करनी चाहिये। 

किट्ट (रस्ट)

इस बीमारी के लक्षण फरवरी व मार्च में दिखाई देते हैं। पत्तियों की ऊपरी सतह पर फलियों पर्णवृतों तथा टहनियों पर हल्के भूरे काले रंग के उभरे हुए चकत्ते बन जाते हैं। इस रोग के लक्षण दिखाई देने पर मेन्कोजेब नामक फफूंदनाशी की एक कि.ग्रा. या घुलनशील गन्धक की एक कि.ग्रा. या कॉपर ऑक्सीक्लोराइड की 1.30 कि.ग्रा. मात्रा को 500 लीटर पानी में घोल बनाकर छिड़काव करना चाहिये। 

पाले से फसल का बचाव

  chane ki khetti 

 चने की फसल में पाले के प्रभाव के कारण काफी क्षति हो जाती है। पाले के पड़ने की संम्भावना दिसम्बर-जनवरी में अधिक होती है। पाले के प्रभाव से फसल को बचाने के लिए फसल में गन्धक के तेजाब की 0 .1 प्रतिशत मात्रा यानि एक लीटर गन्धक के तेजाब को 1000 लीटर पानी में घोल बनाकर छिड़काव करना चाहिये। पाला पड़ने की सम्भावना होने पर खेत के चारों और धुआं करना भी लाभदायक रहता है।

धमाल मचा रही चने की नई किस्में

धमाल मचा रही चने की नई किस्में

चने की खेती कई राज्यों में प्रमुखता से की जाती है। इसकी खेती के लिए दोमट, भारी दोमट, मार एवं पड़वा भूमि जहां जल निकासी की व्यवस्था अच्छी हो ठीक रहती है।

अच्छे उत्पादन के लिए ध्यान देने योग्य बातें

Chane ki fasal चने की खेती के लिए खेत की अच्छी तरह से जुताई करके पाटा लगा दें। सिंचित अवस्था में बीज दर 60 किलोग्राम प्रति हेक्टेयर रखते हैं वही सामान्य दाने वाली किस्मों में बीज दर 80 किलोग्राम प्रति हेक्टेयर रखते हैं। मोटे दाने वाली बारानी अवस्था में बोई जाने वाली किस्म का बीज 75 किलोग्राम प्रति हेक्टेयर डालना चाहिए वही सामान्य दाने वाली किस्मों का बीज 100 किलोग्राम प्रति हेक्टेयर की दर से प्रयोग में लेना चाहिए। लाइन से लाइन की दूरी 30 से 45 सेंटीमीटर एवं बीज की गहराई 10 सेंटीमीटर रखनी चाहिए। मोबाइल मध्य अक्टूबर से नवंबर के पहले हफ्ते तक कर लेनी चाहिए।

उर्वरक संबंधी जरूरतें

किसी फसल के लिए उर्वरक का प्रबंधन बेहद आवश्यक होता है। चने की खेती के लिए नाइट्रोजन फास्फोरस गंधक एवं चिन्ह 20, 50, 20 और 25 किलोग्राम प्रति हेक्टेयर की दर से डालनी चाहिए।

सिंचाई प्रबंधन

यदि बरसात न हो तो चने की खेती में पहली सिंचाई 45 दिन के बाद एवं दूसरी सिंचाई 75 दिन के बाद करनी चाहिए। खरपतवार नियंत्रण के लिए एक किलोग्राम पेंडामेथालिन दवा को 600 से 700 लीटर पानी में घोलकर मोबाइल के बाद और अंकुरण से पूर्व यानी कि 36 घंटे के अंदर खेत में छिड़काव करने से खरपतवार नहीं उगते।

चने की उन्नत किस्में

Chane ki kheti पूसा 2085 चने की काबुली किसमें है जो उत्तरी भारत में राष्ट्रीय राजधानी क्षेत्र और दिल्ली के लिए संस्तुत की गई है।सिंचित अवस्था में यह किस्म 20 क्विंटल तक प्रति हेक्टेयर में उत्पादन देती है।इसके दानी एक समान आकर्षक चमकीले व हल्के भूरे रंग के होते हैं बड़े आकार वाले दाने होने के कारण यह चना बेहद खूबसूरत लगता है।  प्रोटीन की मात्रा अधिक है । अन्य लोगों को भी इसमें कम लगते हैं। यह किस्म मृदा जनित बीमारियों के लिए प्रतिरोधी है। पूसा की दूसरी किस्म हरा चना 112 नंबर है। सिंचित अवस्था में समय पर बोली जाने वाली एप्स 23 कुंटल तक उपज देती है। यह किस्म विभिन्न तरह के दबाव को झेलने में सक्षम है इसके चलते सीमांत किसानों के लिए यह बेहद लाभकारी है। पूसा 5023 काबली श्रेणी का चना है। सिंचित अवस्था में यह 25 कुंतल प्रति हेक्टेयर तक उपज देता है। इसका दाना अत्यधिक मोटा है और उकठा बीमारी के प्रति यह मध्यम अब रोधी है। पूसा 5028 देसी सिंचित अवस्था में 27 कुंतल प्रति हेक्टेयर तक उपज देने वाली किस्मे पूसा 547 देसी दिल्ली, पंजाब, हरियाणा, राजस्थान तथा उत्तर प्रदेश में बोली जाने योग्य किसमें है। सिंचित अवस्था में पछेती दुबई के लिए यह किसने उपयुक्त है और 18 से 25 क्विंटल प्रति हेक्टेयर तक उत्पादन देती है। पकने की अवधि 135 दिन है। यह किस जंड गलन, वृद्धि रोधी रोगों,  फली छेदक के प्रति सहिष्णु है। पूसा चमत्कार किस्म दिल्ली हरियाणा पंजाब राजस्थान एवं उत्तर प्रदेश में सिंचित अवस्था में पाए जाने पर 25 से 30 क्विंटल प्रति हेक्टेयर तक उत्पादन देती है। यह मर्दा जनित रोगों को लेकर प्रतिरोधी है। पकने में 145 से 150 दिन का समय लेती है। पूसा 362 देसी किस्म उत्तर भारत में सामान्य पछेती बुवाई के लिए संस्कृत की गई है और इससे 25 से 30 क्विंटल प्रति हेक्टेयर तक उपज मिलती है। यह किसने सूखे के प्रति सहिष्णु है तथा पकाने के लिए बहुत अच्छी है । पकने में 155 दिन का समय लेती है। पूसा 372 देसी किस्म दिल्ली पंजाब हरियाणा राजस्थान उत्तर प्रदेश मध्य प्रदेश बिहार महाराष्ट्र और गुजरात में सिंचित व बारानी क्षेत्रों में पछेती बुवाई के लिए संस्तुत की गई है। इससे पछेती बुवाई पर 18 से 22 क्विंटल एवं सामान्य बुवाई की दशा में 25 से 30 क्विंटल प्रति हेक्टेयर उपज मिलती है। ऊषा सुभ्रा 128 मध्य प्रदेश, महाराष्ट्र, गुजरात, उत्तर प्रदेश, बुंदेलखंड तथा राजस्थान के सीमावर्ती देशों में भूमि योग्य है।यह सिंचित अवस्था में पक्षी की बुवाई के लिए है और 17 से 23 क्विंटल प्रति हेक्टेयर उपज देती है। मृदा जनित बीमारियों से मध्यम प्रतिरोधी है।मशीनी कटाई के लिए उपयुक्त है 110 से 15 दिन में पक्का तैयार हो जाती है। पूसा धारवाड़ प्रगति बीजीडी बेहतर किस्म मध्य प्रदेश महाराष्ट्र गुजरात उत्तर प्रदेश बुंदेलखंड एवं राजस्थान में होने योग्य है। बारानी क्षेत्रों में यह किस में 22 से 28 क्विंटल प्रति हेक्टेयर उपज देती है। सूखा प्रतिरोधी यह किस मोटे दाने वाली और 120 दिन में पक कर तैयार हो जाती है। पूसा काबुली 2024 सिंचित अवस्था को बारानी क्षेत्रों में 25 से 28 कुंटल उपस्थिति है 145 दिन में पक कर तैयार हो जाती है। पूसा 1108 काबुली सिंचित अवस्था में समय पर बुवाई करने पर 25 से 30 कुंटल उपज देती है और अधिकतम डेढ़ सौ दिन में पक जाती है। पूसा काबली 1105 किस्म सिंचित अवस्था में सामान्य बुवाई के लिए है और 25 से 30 क्विंटल तक उपज देती है। दक्षिण भारत में 120 दिन तथा उत्तर भारत में 145 दिन में पक कर तैयार हो जाती है। पूसा 1103 देसी किस्म पछेती बुवाई के लिए है और 20 से 24 क्विंटल प्रति हेक्टेयर उपज देती है और पकने में 130 से 140 दिन का समय लेती है। उत्तर भारत में धान आधारित फसल चक्र के लिए यह उपयोगी है। पूसा 1128 काबुली 12 न्यू सिंचित क्षेत्र में बुवाई के लिए है अभी से 30 क्विंटल प्रति हेक्टेयर उपज देती है। मृदा जनित रोग प्रतिरोधी है, उच्च सूखा शहष्णु व 140 दिन में पक जाती है। अमरोदी कृष्ण संपूर्ण उत्तर प्रदेश के लिए है। यह 25 से 30 क्विंटल उपज देती है। के डब्ल्यू आर 108 भी संपूर्ण उत्तर प्रदेश के लिए है। यह 135 दिन में पक्के 25 से 30 क्विंटल प्रति हेक्टेयर उपज देती है। के आंसू 50 किस्म संपूर्ण मैदानी क्षेत्र के लिए है। ऊपज 25 से 30 क्विंट देती है। डब्लू सीजी1 किस्म पश्चिमी उत्तर प्रदेश में 25 से 30 क्विंटल उपज देती है और 145 दिन में पकती है। एचके 94-134 किस्म संपूर्ण उत्तर प्रदेश में बोई जाने वाली काबुली चने की किस्में है। यह पृथ्वी से 30 क्विंटल उपज देती है और 145 दिन में पकती है। खरीफ के मौसम की दलहनी फसलें मूंग, उड़द एवं ज्वार की फसल खरीफ सीजन में लगाई जाती है। भारत में कई स्थानों पर उड़द एवं मूंग जायद के सीजन में भी लगाई जाती है।
चने की फसल को नुकसान पहुँचाने वाले प्रमुख रोग और इनका प्रबंधन

चने की फसल को नुकसान पहुँचाने वाले प्रमुख रोग और इनका प्रबंधन

चने की फसल को नुकसान पहुँचाने वाले प्रमुख रोग।पौधे के जमीन के ऊपर के सभी हिस्सों को ये रोग प्रभावित करता है। पत्ते पर, घाव गोल या लम्बे होते हैं, अनियमित रूप से दबे हुए भूरे रंग के धब्बे होते हैं

चने की फसल के प्रमुख रोग और इनका प्रबंधन

1.एस्कोकाइटा ब्लाइट

पौधे के जमीन के ऊपर के सभी हिस्सों को ये रोग प्रभावित करता है। पत्ते पर, घाव गोल या लम्बे होते हैं, अनियमित रूप से दबे हुए भूरे रंग के धब्बे होते हैं, और एक भूरे लाल किनारे से घिरे होते हैं। इसी तरह के धब्बे तने और फलियों पर दिखाई दे सकते हैं। जब घाव तने को घेर लेते हैं, तो हमले के स्थान के ऊपर का हिस्सा तेजी से मर जाता है। यदि मुख्य तना घाव से भर जाये , तो पूरा पौधा मर जाता है।



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प्रबंधन

खेत में संक्रमित पौधों के अवशेषों को हटाकर नष्ट कर देना चाहिए। बीजों को कार्बेन्डाजिम 2.5 ग्राम/किग्रा से उपचारित करें। मैंकोजेब 0.2% का छिड़काव करें। अनाज के साथ फसल चक्र अपनाएं। प्रतिरोधक किस्में जैसे .C235, HC3,HC4 की बुआई करें।



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2. उखेड़ा

लक्षण

यह रोग फसल के विकास के दो चरणों में होता है, अंकुर चरण और फूल चरण। अंकुरों में मुख्य लक्षण आधार से ऊपर की ओर पत्तियों का पीला पड़ना और सूखना, पर्णवृन्तों और रैचियों का गिरना, पौधों का मुरझाना है। वयस्क पौधों के मामले में पत्तियों का गिरना शुरू में पौधे के ऊपरी भाग में देखा जाता है, और जल्द ही पूरे पौधे में देखा जाता है। गहरा भूरा या काला मलिनकिरण क्षेत्र पत्तियों के नीचे तने पर देखा जाता है और उन्नत चरणों में पौधे को पूरी तरह से सूखने का कारण बनता है। गहरा भूरापन स्पष्ट रूप से तने पर काली धारियों और छाल के नीचे जड़ वाले भाग के रूप में देखा जाता है।

प्रबंधन

  • बीज को कार्बेन्डाजिम या थीरम 2 ग्राम प्रति किलो की दर से उपचारित करें।
  • ट्राइकोडर्मा विरिडे 4 ग्राम/किग्रा +1 ग्राम/किग्रा विटावैक्स के साथ बीज का उपचार करें।
  • स्यूडोनोमास फ्लोरेसेंस @ 10 ग्राम/किलोग्राम बीज। भारी मात्रा में जैविक खाद या हरी खाद का प्रयोग करें।
  • HC 3, HC 5, ICCC 42, H82-2, ICC 12223, ICC 11322, ICC 12408, P 621 और DA1 जैसी प्रतिरोधी किस्मों को उगाएँ।

3. वायरस (virus)

लक्षण

प्रभावित पौधे बौने और झाड़ीदार होते हैं और छोटी गांठें होती हैं। पत्ते पीले, नारंगी या भूरे मलिनकिरण के साथ छोटे होते हैं। तना भूरे रंग का मलिनकिरण भी दिखाता है। पौधे समय से पहले सूख जाते हैं। यदि जीवित रहते हैं, तो बहुत कम छोटी फलियाँ बनती हैं।वायरस चपे द्वारा फैलता है। इस रोग की रोकथाम के लिए सब से पहले चेपे का प्रबंधन करना है इस के लिए मोनोक्रोटोफॉस 200 ml /अकड़ के हिसाब से फसल में छिड़काव करे। संक्रमित पौधों को उखाड़ के निकाल दें और नष्ट करदे।



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4. तना गलन

लक्षण

तना गलन प्रारंभिक अवस्था में अर्थात बुवाई के छह सप्ताह तक आती है। सूखे हुए पौधे जिनकी पत्तियाँ मरने से पहले थोड़ी पीली हो जाती हैं, खेत में बिखरी हुई बीमारी का संकेत है। तना और जड़ का जोड़ मुलायम होकर थोड़ा सिकुड़ जाता है और सड़ने लगता है। संक्रमित भाग भूरे सफेद हो जाते हैं। ये रोग मिट्टी में ज्यादा नमी , कम मिट्टी पीएच के कारण फलता है । मिट्टी की सतह पर कम गली खाद की उपस्थिति और बुवाई के समय और अंकुर अवस्था में नमी अधिक होना रोग के विकास में सहायक होती है।धान के बाद बोने पर रोग का प्रकोप अधिक होता है।

प्रबंधन

  • गर्मियों में गहरी जुताई करें। बुवाई के समय अधिक नमी से बचें। अंकुरों को अत्यधिक नमी से बचाना चाहिए।
  • पिछली फसल के अवशेषों को बुवाई से पहले और कटाई के बाद नष्ट कर दें।
  • भूमि की तैयारी से पहले सभी अविघटित पदार्थ को खेत से हटा देना चाहिए।
  • कार्बेन्डाजिम 1.5 ग्राम और थीरम 1.5 ग्राम प्रति किलो बीज के मिश्रण से बीज का उपचार करें।
चना की फसल अगर रोगों की वजह से सूख रही है, तो करें ये उपाय

चना की फसल अगर रोगों की वजह से सूख रही है, तो करें ये उपाय

चना एक ऐसी फसल है, जो किसानों को काफी फायदा पहुंचाती है। लेकिन अगर इसकी अच्छे से देख-रेख ना की जाए तो इसमें बहुत जल्द रोग लग जाता है। चने की फसल में लगने वाले कुछ रोग हैं उखेड़ा, रतुआ, एस्कोकाइटा ब्लाईट, सूखा जड़ गलन, आद्र जड़ गलन, ग्रे मोल्ड ऐसे में किसान फसल लगाने के बाद हमेशा ही परेशान रहते हैं, कि अपनी चने की फसल को किस तरह से इन लोगों से बचाया जाए। आप कुछ बातें ध्यान में रखते हुए अपनी फसल को इन बीमारियों से बचा सकते हैं।

उखेड़ा:

चने की फसल में यह रोग बहुत ही आसानी से लग जाता है, यह फफूंद से लगने वाला एक तरह का रोग है और चने की फसल को इससे बचाने के कुछ उपाय हैं।
  • किसानों को चाहिए कि वह रोग प्रतिरोधी किस्म जैसे कि 1, एच.सी. 3, एच.सी. 5, एच.के. 1, एच.के. 2, सी.214, उदयरोगप्रतिरोधक किस्में जैसे- एच.सी, अवरोधी, बी.जी. 244, पूसा- 362, जे जी- 315, फूले जी- 5, डब्ल्यू आर - 315, आदि से खेती करें।
  • बीज के उपचार के लिए 4 ग्राम ट्राइकोडर्मा विरिडी $ विटावैक्स 1 ग्राम का 5 मिली लीटर पानी में लेप बनाकर प्रति किलोग्राम बीज की दर से प्रयोग करें।
  • जितना ज्यादा हो सके खेती में हरी और ऑर्गेनिक खाद ही डालें।
  • अगर आप के खेत में चने की खेती में बार-बार यह बीमारी हो रही है तो आपको कोशिश करनी चाहिए कि आप तीन-चार साल के लिए खेत में चना गाना बंद कर दें।
  • जब भी आप खेत में चने की बुवाई कर रहे हैं तो थोड़ी सी गहरी बुवाई करें जो लगभग 8 से 10 सेंटीमीटर तक गहरी हो।


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रतुआ रोग

यह रोग चने की पत्तियों में होता है और इस रोग के होने के बाद फसल में पत्तों पर छोटे-छोटे भूरे रंग के धब्बे हो जाते हैं जो धीरे-धीरे पूरी फसल को बर्बाद कर देते हैं। इस रोग से फसल को बचाने के लिए आपको निम्नलिखित उपाय करने चाहिए।
  • जितना ज्यादा हो सके फसल को कीटनाशक मुक्त रखें।
  • रोग प्रतिरोधी जैसे कि गौरव आदि ही उगाएं।


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एस्कोकाइटा ब्लाईट

यह रोग चने की खेती के बीजों से ही आरंभ हो जाता है और फसल में फूल आने में अड़चन पैदा करता है। इस रोग से फसल को बचाने के लिए आपको बीजों पर खास ध्यान देने की जरूरत है।
  • रोग प्रतिरोधक किस्में जैसे कि सी-235, एच सी-3 या हिमाचल चना-1 उगायें।
  • केवल प्रमाणित बीज का ही प्रयोग करें।

सूखा जड़ गलन

यह रोग चने की खेती में ज्यादातर गलत बीज या फिर गलत मिट्टी से होता है। इस रोग में फसल में फूल से फली बनने में समस्या आती है। पौधे की पत्तियां और तने भूरे रंग के होकर झड़ने लगते हैं। इस रोग के निदान के लिए आपको कुछ उपाय करने की आवश्यकता है।


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  • अगर बार बार किसी मिट्टी में सूखा जड़ गलन रोग हो रहा है, तो आपको उसमें चने की खेती करना बंद कर देना चाहिए।
  • गेहूं और जौ की खेती के साथ एक फसल चक्र बनाएं इससे चने की खेती में सूखा जड़ गलन रोग कम होने लगता है।
  • खेत में फसल के अवशेष को ना छोड़ें और बहुत ज्यादा गहरी जुताई करें।

मोल्ड

यह रोग भी चने की फसल की जड़ें और पत्तियों को नष्ट कर देता है। इसमें फसल में फूल से फल बन ही नहीं पाता है और आप की फसल पूरी तरह से बर्बाद हो जाती है। इस रोग से बचने के लिए आपको नीचे दिए गए उपाय अपनाने चाहिए।
  • फसल के दो पौधों के बीच में अच्छी खासी दूरी बनाए।
  • चने की खेती के साथ-साथ बीच में अलसी की खेती का फसल चक्र बनाए रखें।
  • फसल की आत्यधिक वनस्पतिक वृद्धि न होने दें।
  • खेत में अत्यधिक पानी न दें।
इन सबके अलावा चने की खेती में एन्थ्रेक्नोज, स्टेमफाइलियम पत्ता धब्बा रोग, फोमा पत्ता ब्लाईट व स्टंट रोग भी देखने को मिलता है और आप बाकी रोग की तरह इन्हें भी सही तरह से फसल चक्र को बरकरार रखते हुए ठीक कर सकते हैं। इसके अलावा हमेशा ही सही तरह से निरीक्षण करने के बाद ही खेती के लिए बीज खरीदें और रोग प्रतिरोधक किस्मों को ज्यादा से ज्यादा इस्तेमाल करें।
ठंड के कारण बर्बाद हो रही है, किसानों की फसलें, जाने कौन-कौन सी फसल को है नुकसान

ठंड के कारण बर्बाद हो रही है, किसानों की फसलें, जाने कौन-कौन सी फसल को है नुकसान

इस बार सर्दियों ने पिछले कई सालों के रिकॉर्ड तोड़ दिए हैं। उत्तर भारत में कड़ाके की ठंड से लोग परेशान हैं। साथ ही, यह फसलों के लिए भी बेहद हानिकारक साबित हो रही हैं। किसान अपनी बर्बाद हो रही फसलों को लेकर बेहद परेशान हैं। किसान इस भारी ठंड में भी दिन-रात जागते हुए अपनी फसलों की निगरानी कर रहे हैं। लेकिन फिर भी पाला फसलों को बर्बाद कर रहा है। उत्तर भारत में ज्यादातर नुकसान आलू की फसल को हुआ है। लेकिन अभी एक चौंकाने वाला तथ्य सामने आया है। पाले से इस बार फूलों वाली खेती पर भी बेहद बुरा प्रभाव पड़ रहा है। मौजूदा समय में हो रही फूलों वाली फसलों को भी नुकसान हो सकता है। किसानों को सावधानी बरतने की जरूरत है।

फूलों वाली फसलों को हो रहा नुकसान

बहुत ज्यादा कोहरा और पाला पड़ने के कारण सभी फसलें ठंड की चपेट में आ रही हैं। लेकिन फूलों वाली फसल में झुलसा रोग हो रहा है, जो पूरी तरह से फूलों वाली फसल को बर्बाद कर रहा है। यह रोक लगने के बाद फसल पूरी तरह से सूख कर बर्बाद हो जाती है। कोहरा और पाला अधिक पड़ने से फसलें अधिक ठंड की चपेट में आ गई हैं। झुलसा रोग फसलों को अधिक चपेट में ले रहा है। झुलसा रोग लगने से फसलें सूख जाती हैं। इससे किसानों को लाखों रुपये का नुकसान हो रहा है। सरसों व राई की फसल फूलों वाली फसल होती है। विशेषज्ञों का कहना है, कि इस सीजन में इन फसलों पर माहू कीट और सफेद गेरूई का असर दिख रहा है। इसका असर फूल पर भी पड़ता है और फूल सूख जाता है। इससे सरसों और राई का उत्पादन घट जाता है।

इस रोग की चपेट में आ रही चने की फसल

चने की फसल के लिए कटवा कीट और बुकनी रोग बहुत ही हानिकारक होता है। चने की फसल में यह दोनों ही रोग देखने को मिल रहे हैं। फूल आने के समय फसल सूखने से किसानों का उत्पादन शत प्रतिशत घट जाता है। इस समय यही स्थिति बनी हुई है। किसान अपनी पूरी की पूरी फसल बर्बाद होने के कारण बहुत ज्यादा समस्याओं का सामना कर रहे हैं और आगे चलकर उन्हें आर्थिक मंदी का सामना भी करना पड़ रहा है।


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आलू की फसलों को भी हो रहा नुकसान

आलू के लिए ज्यादा ठंड कभी भी सही नहीं रहती है और इस बार की ठंड के कारण इसका सीधा असर आलू की खेती पर देखा जा रहा है। कृषि एक्सपर्ट का कहना है, कि अगर अगले 15 दिन तक भी ऐसी ही कड़ाके की ठंड पड़ी तो आलू की फसल को और भी ज्यादा नुकसान होने का खतरा है।